रामधारी सिंह दिनकर की कविता – सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवि थे, जिन्होंने अपनी कविताओं में राष्ट्रवाद, क्रांति और सामाजिक न्याय का संदेश दिया। उनकी कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है भारतीय लोकतंत्र और जनशक्ति का अद्भुत चित्रण है। यह कविता जनता की जागरूकता, उसके अधिकारों और उसके क्रांतिकारी स्वभाव को दर्शाती है। इसमें दिनकर जी ने स्पष्ट रूप से बताया है कि जब जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग होती है, तो वह किसी भी सत्ता को हटा सकती है और अपने लिए एक नई व्यवस्था स्थापित कर सकती है।

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रामधारी सिंह दिनकर की कविता - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है कविता

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
 
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।

जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?”

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।

लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है ।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।

सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।

आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में ।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

~ रामधारी सिंह दिनकर

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“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” कविता का सारांश

यह कविता जनता की शक्ति को रेखांकित करती है। दिनकर जी इसमें कहते हैं कि सदियों से दबी-कुचली जनता अब उठ खड़ी हुई है। अब वह अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ रही है और अपनी न्यायपूर्ण सत्ता की स्थापना करने को तत्पर है।

कवि सत्ता में बैठे लोगों को सचेत करते हैं कि जनता अब जाग गई है और अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। यह जनता अब शोषण और अन्याय को सहन करने को तैयार नहीं है। वह क्रांति का बिगुल बजा चुकी है और सिंहासन को खाली करने का संकेत दे रही है।

कविता के अंत में कवि यह स्पष्ट करते हैं कि अब राजा का नहीं बल्कि प्रजा का अभिषेक होगा। जनता को ही वास्तविक शक्ति का अधिकार मिलना चाहिए, क्योंकि वही असली देवता है जो खेतों में, खलिहानों में और श्रम से राष्ट्र निर्माण कर रही है।

“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” कविता की समीक्षा

“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” एक चेतावनी और घोषणा दोनों है। यह कविता भारत के स्वतंत्रता संग्राम और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है। इसमें दिनकर जी ने जनता की शक्ति को एक महाशक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अन्याय और शोषण के खिलाफ उठ खड़ी होती है।

कवि ने इस कविता में सशक्त शब्दों और प्रेरणादायक भावनाओं का प्रयोग किया है, जो हर व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण करने और समाज में अपने कर्तव्य को समझने की प्रेरणा देती है। यह कविता सिर्फ साहित्यिक कृति नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी उद्घोष है जो सत्ता की चकाचौंध में बैठे शासकों को जनता के प्रति उनके कर्तव्यों की याद दिलाती है।

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निष्कर्ष – सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अपने समय में थी। यह हमें बताती है कि जनता ही असली शासक है और वही लोकतंत्र की असली ताकत है। जब जनता जागती है, तो किसी भी सत्ता को हटाकर अपनी सत्ता स्थापित कर सकती है। “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” केवल एक कविता नहीं, बल्कि एक क्रांति का घोष है, जो हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है।


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