रामधारी सिंह दिनकर की – परंपरा कविता

परंपरा कविता. रामधारी सिंह दिनकर भारतीय साहित्य के उन महान कवियों में से एक हैं, जिनकी रचनाएँ समाज, संस्कृति और राष्ट्रभक्ति की भावना को प्रकट करती हैं। उनकी कविताएँ परिवर्तन और परंपरा के बीच संतुलन की आवश्यकता पर बल देती हैं। “परंपरा” कविता में उन्होंने यह संदेश दिया है कि परंपरा को बिना सोचे-समझे नष्ट नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उसमें से जीवनदायी तत्वों को संरक्षित करना चाहिए। यह कविता आधुनिकता और परंपरा के संघर्ष पर गहराई से प्रकाश डालती है।

रामधारी सिंह दिनकर की “परंपरा” कविता सिर्फ शब्दों का एक सुंदर संयोजन नहीं है, बल्कि यह आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन की जटिलता को दर्शाने वाली गहरी विचारशील रचना है। यह कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या परंपरा केवल रूढ़िवादिता और जड़ता का प्रतीक है, या फिर यह हमारी सांस्कृतिक पहचान की वह जड़ है जिससे हमें शक्ति मिलती है?

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रामधारी सिंह दिनकर

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रामधारी सिंह दिनकर की कविता - परंपरा

परंपरा कविता

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है

पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है

परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो

मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो

लोगों की आस्था के आधार
टुट जाते है
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते है

परम्परा जब लुप्त
होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे

और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम

~ रामधारी सिंह दिनकर की कविता – परंपरा

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परंपरा कविता का सारांश

कवि हमें परंपरा और क्रांति के बीच संतुलन बनाने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं कि परंपरा को अंधे तौर पर नकारना सही नहीं है क्योंकि उसमें बहुत कुछ ऐसा है जो आज भी प्रासंगिक और जीवनदायक है। पानी की सतही गति को क्रांति का प्रतीक मानते हुए वे बताते हैं कि यदि उसे गहरा बनाया जाए, तो वही परंपरा का रूप ले लेती है।

समाज में परिवर्तन आवश्यक है, लेकिन हमें उन परंपराओं को सहेजकर रखना चाहिए जो आज भी उपयोगी हैं। बिना सोच-विचार के पुरानी मान्यताओं को नष्ट करना लोगों की आस्था को कमजोर कर सकता है और सभ्यता के अस्तित्व पर खतरा पैदा कर सकता है। कवि सुझाव देते हैं कि यदि हम नई परंपराएँ स्थापित करना चाहते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उनमें हमारी मिट्टी की सुगंध बनी रहे।

अंत में, वे कहते हैं कि परंपरा किसी एक धर्म की संपत्ति नहीं है। यह कोई चीनी की तरह कृत्रिम नहीं है, बल्कि मधु की तरह प्राकृतिक और पोषक है।

परंपरा कविता का विश्लेषण

दिनकर जी की यह कविता परंपरा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य स्थापित करने की प्रेरणा देती है। यह कविता हमें सिखाती है कि परंपरा को पूरी तरह से नकारना बुद्धिमानी नहीं है, बल्कि उसमें से सार्थक तत्वों को सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए। सभ्यता को जीवित रखने के लिए जड़ों से जुड़कर रहना आवश्यक है। यह कविता हमें सिखाती है कि सच्ची प्रगति वही है, जो अपनी मिट्टी और संस्कृति की पहचान को बनाए रखते हुए आगे बढ़े।

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निष्कर्ष – रामधारी सिंह दिनकर की – परंपरा कविता

“परंपरा” एक प्रेरणादायक कविता है, जो हमें सिखाती है कि परंपरा और आधुनिकता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। हमें विवेकपूर्ण तरीके से परंपराओं को संजोकर रखना चाहिए और साथ ही समाज में आवश्यक बदलाव लाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। इस कविता का संदेश हर युग में प्रासंगिक रहेगा और नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जुड़े रहने की सीख देता रहेगा।

कविता का अंतिम भाग अत्यंत विचारोत्तेजक है –
“परंपरा चीनी नहीं मधु है, वह न तो हिन्दू है, न मुस्लिम।”
यह पंक्ति बताती है कि परंपरा किसी एक धर्म की संपत्ति नहीं होती। वास्तविक परंपरा वह होती है जो समावेशी हो, जो सभी के लिए समान रूप से उपयोगी हो। यह विचार हमें संकीर्ण धार्मिक मानसिकता से ऊपर उठकर परंपरा को एक व्यापक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में देखने के लिए प्रेरित करता है।


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