अकबर इलाहाबादी की 5 शायरि

अकबर इलाहाबादी की 5 शायरि. अकबर इलाहाबादी का शायरी संसार इंसानी फितरत, सामाजिक विषमताओं, धार्मिक रूढ़ियों और जिंदगी की वास्तविकताओं का अनूठा संगम है। उनकी शायरी में व्यंग्य के साथ-साथ गहरी बातें छिपी होती हैं, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देती हैं। यहाँ उनकी पाँच मशहूर शायरियों का एक अंश प्रस्तुत है.

अकबर इलाहाबादी और उनकी शेरो शायरी

अकबर इलाहाबादी की 5 शायरियां

अकबर इलाहाबादी की 5 शायरियां

1. कोई हँस रहा है कोई रो रहा है – अकबर इलाहाबादी

इस शायरी में अकबर इलाहाबादी ने जीवन की विविधताओं और असमानताओं को व्यक्त किया है। कोई व्यक्ति खुश है तो कोई दुःखी, कोई प्राप्त कर रहा है तो कोई खो रहा है। कहीं कोई सतर्क है तो कोई असावधान। कहीं निराशा ने जीवन पर असर डाला है, तो कहीं कोई नई उम्मीदें बो रहा है। आखिर में अकबर सोच में पड़ जाते हैं कि ये सब क्यों हो रहा है और क्या हो रहा है। यह शायरी जीवन की अनिश्चितताओं और विपरीत स्थितियों पर अकबर की गहरी चिंतनशील दृष्टि को दर्शाती है।

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है

कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है

कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है

इसी सोच में मैं तो रहता हूँ ‘अकबर’
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है

~ अकबर इलाहाबादी

2. बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से – अकबर इलाहाबादी

इस शायरी में अकबर इलाहाबादी ने जिंदगी के अनुभवों और समाज की विडंबनाओं को उकेरा है। वे कहते हैं कि तमाम बहसें बेकार साबित हुईं, और यह समझने में काफी देर हो गई कि असल मायने क्या हैं। अफसोस है कि उम्र सिर्फ शब्दों के जाल में ही उलझती रही। अकबर देश की हालत और समाज की कठिनाइयों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि एक ओर लोग मेहनत से जूझ रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ लोग आराम से दूसरों का हक छीनकर अपना पेट भरते हैं।

आगे, वह धार्मिक गुरुओं (शेख) का जिक्र करते हैं जो विदेशी महिलाओं के आकर्षण में खो जाते हैं और सही रास्ते पर लौटने में देरी कर बैठते हैं। अंत में, अकबर खुद को अपनी धार्मिक रस्मों (तस्बीह) से दूर होकर किसी के वादों और बातों के चक्कर में पड़ने पर हल्के व्यंग्य के साथ खुद पर ही कटाक्ष करते हैं। यह शायरी अकबर की गहरी सोच और जीवन में वास्तविकता को देखने के अंदाज़ को दर्शाती है।

बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में

है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे

हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में

छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में

~ अकबर इलाहाबादी

3. दिल मेरा जिस से बहलता – अकबर इलाहाबादी

इस शायरी में अकबर इलाहाबादी ने गहरी सामाजिक और धार्मिक विडंबनाओं को व्यक्त किया है। पहले शेर में वे कहते हैं कि उनके दिल को सुकून देने वाला कोई सच्चा इंसान नहीं मिला; कुछ लोग दिखावा करते हैं, पर ईश्वर के सच्चे भक्त नहीं हैं। दूसरे शेर में वे मित्रों की महफिल और वसंत की हवा के निराश होने की बात करते हैं, क्योंकि ऐसा कोई नहीं मिला जो पूरी तरह से दीवाना हो और अपने विचारों के लिए जुनूनी हो।

तीसरे शेर में अकबर फूलों के चाहने वालों और इत्र बेचने वालों की बहुतायत का जिक्र करते हैं, पर ऐसा कोई नहीं मिलता जो बुलबुल के प्रेमपूर्ण नग्मों का सच्चा प्रशंसक हो। चौथे शेर में, गुरु (मुर्शिद) की दी गई राह को लेकर वह कहते हैं कि काबा तो खो गया लेकिन चर्च या मंदिर भी नहीं मिला, जो शायद जीवन के आध्यात्मिक मार्ग को खोजने की निरर्थकता की ओर संकेत है।

अंतिम शेर में अकबर मजाकिया अंदाज़ में कहते हैं कि सय्यद (धार्मिक नेता) तो सरकारी दस्तावेज और संपत्ति लाने में व्यस्त हैं, जबकि शेख (धार्मिक विद्वान) कुरान दिखाते फिर रहे हैं, पर पैसे का अभाव है। अकबर की यह शायरी समाज और धार्मिकता पर उनकी तल्ख टिप्पणियों को दर्शाती है, जहाँ वे दिखावे और वास्तविकता के बीच के फासले को उजागर करते हैं।

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला

बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला

गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला

वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला

सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला

~ अकबर इलाहाबादी

बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा;

बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा;

मायूस=निराश;

आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार

ख्व़ाहाँ=चाहने वाले;

इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले;

तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक

मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर

4. उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है – अकबर इलाहाबादी

इस शायरी में अकबर इलाहाबादी ने जीवन की विभिन्न जटिलताओं और सामाजिक स्थिति का एक दिलचस्प चित्रण किया है।

पहले शेर में अकबर यह बताते हैं कि कुछ लोग इबादत (धार्मिक कृत्य) में भी लीन रहते हैं, लेकिन उनके मुंह से निकलने वाली दुआएं जैसे ठुमरी (कविता या गीत) के रूप में बदल जाती हैं, यह दिखाता है कि उनका आचरण और शब्द दोनों में कोई न कोई उलझाव है।

दूसरे शेर में वह प्रेमी और प्रियिका के बीच के रिश्ते की मिठास को याद करते हैं, लेकिन अब वह रिश्ता बदल चुका है, क्योंकि अब जीवन में केवल जिम्मेदारियाँ (बीवी-मियाँ का रिश्ता) रह गई हैं, और उसमें पहले जैसा रोमांस और लुत्फ़ नहीं रहा।

तीसरे शेर में वह किसी से अपनी उम्मीदों के बारे में बताते हैं, कहते हैं कि उन्होंने उम्मीद नहीं की थी कि वह किसी तरह से अपना दिल और जीवन उनके सामने पेश करेंगे, और अब वह उनके मेहमान बन गए हैं।

चौथे शेर में अकबर अपनी स्थिति को चित्रित करते हैं। वह एक बुलबुल (प्यारी चिड़ीया) की तरह हैं, जो चारे की तलाश में है, लेकिन वह खुद को एक मिम्बर (संसद सदस्य) के रूप में ढालकर एक तरह से अपने स्वाभाविक गुणों से दूर हो गया है।

अंतिम शेर में अकबर अपनी प्रेमिका के माता-पिता के साथ संबंधों को व्यंग्यात्मक तरीके से दिखाते हैं, जब सास (लैला की माँ) उसे मजनूं (प्रेमी) के रूप में तंग करती है, जैसे वह अपनी व्यथा व्यक्त कर रहे हों।

यह शायरी जीवन के उलझे हुए रिश्तों, उम्मीदों और व्यंग्यात्मक स्थितियों को व्यक्त करती है, जहां अकबर ने सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभवों को बड़ी गहराई से व्यक्त किया है।

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

~ अकबर इलाहाबादी

5. जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है – अकबर इलाहाबादी

इस शायरी में अकबर इलाहाबादी अपनी भावनाओं, जीवन के अनुभवों और आत्म-संघर्ष को गहरे और सूक्ष्म तरीके से व्यक्त करते हैं।

पहले शेर में वह बताते हैं कि जैसे जैसे उनकी जिंदगी में हसरत (इच्छाएँ और अभिलाषाएँ) बढ़ी हैं, वैसे-वैसे उनका स्वरूप भी बदलता जा रहा है। उनका हज़ारों तरह के भावनाओं से भरा दिल अब खुद अपनी सूरत बन चुका है, जो एक गहरी और जटिल अवस्था का प्रतीक है।

दूसरे शेर में अकबर खुद को एक गुमराह मुसाफ़िर के रूप में देख रहे हैं, जो अपनी मंज़िल से भटक चुका है। वह इस तन्हाई में मदद की तलाश में हैं, और खुद को एक खोजी हुआ, परेशान और थका हुआ इंसान मानते हैं, जो इस जीवन के कठिन रास्तों पर चलने में उलझा हुआ है।

तीसरे शेर में अकबर समाज के धार्मिक झगड़ों की ओर इशारा करते हैं। शेख और ब्राह्मण के बीच होने वाली बहसों से वह दूर रहते हुए खुद को उनके झगड़ों से अज्ञात और अनासक्त मानते हैं। जब लोग उनसे इन झगड़ों के बारे में पूछते हैं, तो वह दोनों ही धर्मों के प्रति समान आदर व्यक्त करते हैं, यह दर्शाता है कि अकबर धर्म के मामलों में तटस्थ रहते हुए संतुलित दृष्टिकोण रखते हैं।

अंतिम शेर में वह किसी से अपने बारे में कुछ कहने की बजाय, खुद को आईने में देखने की बात करते हैं। वह यह कहते हैं कि यदि वह अपने अस्तित्व की छवि किसी से साझा करें, तो वह किसी के दिल में अपनी सूरत का प्रतिरूप बनकर सामने आ सकते हैं। यह शेर आत्म-परीक्षण और आत्म-सम्मान की ओर संकेत करता है, जिसमें अकबर अपनी आत्मा और आंतरिक रूप से एकाकार होते हुए अपनी पहचान को साफ-साफ महसूस करते हैं।

यह शायरी आत्मविकास, आत्म-खोज और समाज के प्रति एक तटस्थ दृष्टिकोण को सुंदरता से व्यक्त करती है।

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ

मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ

ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ

अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ

~ अकबर इलाहाबादी

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