मुंशी प्रेमचंद की कहानी “ज्योति”

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परिचय

ज्योति, मुंशी प्रेमचंद की कहानी “ज्योति” मुंशी प्रेमचंद के द्वारा लिखी एक कहानी है. (मुंशी प्रेमचंद की कहानी “ज्योति” | ज्योति | मुंशी प्रेमचंद की कहानी | मुंशी प्रेमचंद | प्रेमचंद | कहानी ) इस कहानी में समाज में विधवा औरतों का स्तर दिखने की कोशिश की है मुंशी प्रेमचंद ने. विधवाओं के सजने संवरने पे रोक की वजह से उनके अंदर कैसे विचार उत्पन्न होते हैं. उनके विचारों पे और घर परिवार पे कैसा असर पड़ता है? ये दिखने की कोशिश की है मुंशी प्रेमचंद ने.

मुंशी प्रेमचंद की कहानी “ज्योति”

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एक गांव में बूटी नाम की एक विधवा महिला रहती थी। विधवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत ही कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मरे हुए पति को कोसती “आप तो स्वर्ग सिधार गए, मेरे लिए यह जंजाल छोड़ गए। जब इतनी जल्दी ही जाना था तो ब्याह ना जाने किसलिए किया? घर मेँ भूनी भाँग तक नहीं थीऔर चले थे ब्याह करने वह चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती।” उसके खानदान में तो इसका रिवाज भी है।

देखने सुनने में तो बुरी ना थी। दो एक आदमी तैयार भी थे लेकिन बूटी पति वर्ता कहलाने के मोह को छोड़ न सकी और सारा क्रोध उतरता उसके बड़े लड़के मोहन पर जो अब 17-18 साल का हो चुका था। दूसरा बेटा सोहन अभी छोटा ही था, एक लड़की थी जिसका नाम था मैना। अगर ये तीनो ना होते तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता, जिसका थोड़ा सा काम कर देती, वह रोटी कपड़ा दे देता, जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती। अब अगर कहीं बैठ जाए तो लोग यही कहेंगे की तीन तीन बच्चों के होते हुए इसे क्या सूझी?

बड़ा बेटा मोहन भरसक उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता था। गाय भैंसों को साना पानी देना, नाहाना, दूध दुहना यह सब कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह था की सीधा ही ना होता। वह रोज़ एक ना एक खुचड़ निकालती रहती। मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था।

पति उसके सिर पर यह गृहस्थी का भार पटककर क्यों चला गया? उसे बस यही शिकायत थी। बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया। ना खाने का सुख मिला, ना पहनने ओढ़ने का, और ना किसी और बात का। इस घर में क्या आई मानो भट्टी में पड़ गई।

उसके मन में कई इच्छाओं का द्वंद सा मचा रहता और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मधुरता जलकर भस्म हो चुकी थी। पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास 400-500 के गहने थे लेकिन एक एक करके वो सब भी हाथ से निकल गए।

उसी मोहल्ले में उसकी बिरादरी में और भी कितनी औरतें थीं, जो उम्र में उससे बड़ी थी, फिर भी वो गहनों से सजी संवरी रहती, आँखों में काजल, मांग में सिंदूर, बूटी को लगता था कि जैसे वह उसे जलाने के लिए ये सब करती थी। इसीलिए अब उनमें से कोई विधवा हो जाती तो बूटी को खुशी होने लगती और उसकी सारी जलन वह अपने लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर।

बूटी शायद सारे संसार की स्त्रियों कोअपने ही रूप में देखना चाहती थी।

शाम के समय मोहन दूध बेचकर घर आया तो बूटी ने उसे देखते ही कहा, देखती हूँ तू अब सांड बनने पर उतारू हो गया है।

मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा कैसा सांड? बात क्या है?

तू रूपा से छिप छिपकर नहीं हंसता बोलता उस पर कहता है की कैसा सांड? तुझे लाज नहीं आती? घर में पैसों की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाए जाते हैं, कपडे रंगाये जाते हैं।

मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया। अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान मांगे तो क्या करता? कहता कि पैसे दे तब लाऊंगा? अपनी धोती रंगने को दी उससे रंगाई मांगता?

मोहल्ले में तू ही एक धन्नासेठ है। और किसी से उसने क्यों ना कहा?

तुझे अब छल्ला बनने की सूझी है, घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया है?

यहाँ पान किसके लिए लाता? क्या तेरे लिए? मैं ना जानता था तुम पान खाना चाहती हो।

संसार में रूपा ही है जो पान खाने जोग है?

शौख श्रृंगार की भी तो कोई उम्र होती है अम्मा?

बूटी जल उठी। उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देने जैसा था। बूटी ने कहा अब तो मेरे लिए फटे चिथड़े पहनने के दिन हैं। जब तेरा बाप मरा तो मैं रूपा से 2-4 साल ही बढ़ी थी, उस वक्त कोई घर कर लेती तो तुम लोगो का पता नहीं क्या होता। गली गली भीख मांगते फिरते तुम। लेकिन मैं कह देती हूँ, अगर तू फिर से उसके साथ बोला तो या तो तू घर में रहेगा या मैं रहूंगी।

मोहन ने डरते डरते कहा, मैं उससे बात कर चुका हूँ अम्मा।

कैसी बात? सगाई की? अगर रूपा मेरे घर में आई तो झाड़ू मार कर निकाल दूंगी। यह सब उसकी माँ की माया है। वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीन लेना चाहती है।

मोहन ने बड़े ही व्यथित कंठ से कहा, अम्मा ईश्वर के लिए चुप रहो। मैंने तो समझा था 4 दिन में मैना अपने घर चली जाएगी और तू अकेली पड़ जाओगी, इसीलिए उसे लाने की बात सोच रहा था। अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो।

तू आज से यहाँ आंगन में सोयेगा।

क्यों? तुम्हें मुझ पर संदेह है।

हाँ।

तो मैं यहाँ ना सोऊंगा।

तो निकल जा घर से।

हाँ, तेरी यही इच्छा है तो मैं निकल जाऊंगा।

बहन ने भोजन पकाया परंतु मोहन ने कहा मुझे भूख नहीं है। बूटी उसे मनाने के लिए ना आई। मोहन का युवा हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सकता था। वो सोच रहा था माँ का घर है तो वही ले ले। अपने लिए मैं कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ लूँगा। रूपा ने उसके रूखे जीवन में एक बहार सी ला दी थी। जीवन में कुछ एक सुना सुना सा लगता था, रूपा ने जैसे वसन्त ऋतु की तरह उसके मन को पुलकित कर दिया था। मोहन को जीवन मेँ एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करता होता पर ध्यान रूपा की ओर ही लगा रहता।

वह अपनी रूपा को लेकर माँ से अलग रहेगा। इस जगह ना सही तो किसी दूसरे मोहल्ले में सही, माँ अगर मान जाए तो उसे देवी जैसी बहुँ मिल जाती। ना जाने वो रूपा से इतना चिढ़ती क्यों है? चाहे ज़रा पान खा लेती है और ज़रा साड़ी रंगकर पहन लेती है। तभी उसे चूड़ियों की झंकार सुनाई दी।

रुपया आ रही थी। हाँ वही थी। रूपा उसके पास आकर बोली सो गए क्या? घड़ी भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ, आये क्यों नहीं? मोहन आधी नींद में था। वो एकदम से चौंक कर उठ गया।

अभी तक सो रहे थे क्या? हाँ ज़रा नींद आ गई थी रूपा तुम इस वक्त यहाँ क्या करने आई हो? कही अम्मा ने देख लिया तो मुझे मार ही डालेगी।

तुम आज आये क्यों नहीं?

आज अम्मा से लड़ाई हो गयी।

क्या कहती थी?

कहती थी, रूपा से बोलेगा तुम्हे प्राण दे दूंगी।

तुमने पूछा नहीं की रूपा से क्यों चिढ़ती हो?

अब उनकी बात क्या कहो रूपा वह किसी का भी खाना पहनना नहीं देख सकती।

अब मुझे तुमसे दूर रहना पड़ेगा?

ऐसी बात करोगी तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊंगा। तुम मेरे पास एक बार रोज़ आया करो बस और मैं कुछ नहीं चाहती।

उसी समय घर का किवाड़ खड़का और रुपया भाग गयी।

मोहन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनंद का सागर भरा हुआ था। वह सोहन को बराबर डाँटता रहता था। सोहन आलसी था, घर के सारे काम धंधे मेँ उसका जीना लगता था। सोहन को अपने कपड़े धोते हुए देखकर मोहन ने कहा आज धोबी को क्यों नहीं दे आते अपने कपड़े?

धोबन पैसे मांगती है।

तो अम्मा से पैसे मांग लेते।

अम्मा पैसे देती है भला?

ये लो मुझसे ले लो। यह कहकर उसने इकन्नी सोहन की तरफ उछाली, सोहन प्रसन्न हो गया।

बहुत दिनों के बाद आज दोनों भाइयों में स्नेह देखने को मिला था। तभी उसने देखा कि आंगन में उसकी बहन घरौंदे बना रही थी। वो बोला तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है। ज़रा बनाकर दिखा।

मैना का चेहरा खिल उठा। प्रेम के शब्दों में कितना जादू होता है। मुँह से निकलते ही जैसे सुगंध फैल जाती है।

मोहन बोला तेरी गुड़िया का ब्याह कब है मैंना? न्योता नहीं देगी? कुछ मिठाई खाने को नहीं मिलेगी?

मैंना का मन आकाश में उड़ने लगा।

अम्मा पैसे नहीं देती।

कोई बात नहीं, पैसे अम्मा नहीं देती तो मैं देता हूँ। ये लो, इन पैसों से तुम अपने गुड्डे गुड़िया का ब्याह रचना।

उसी वक्त बूटी वहाँ पर आ गई। उसके सिर पर गोबर की टोकरी थी मोहन को खड़ी देख कर वो कठोर स्वर में बोली अभी तक मटरगश्ती ही हो रही है? भैस कब दूही जाएगी?

आज बूटी को मोहन ने विद्रोह बना जवाब ना दिया। जैसे ही उसके मन में माधुर्य का कोई दरिया सा चल पड़ा था, माता को गोबर का बोझ उठाते देखकर उसने टोकरी उसके सिर से उतार ली। बूटी ने कहा रहने दे, रहने दे जाकर भैस dooh, मैं तो गोबर लेकर जाती हूँ।

तुम इतना बोझ क्यों उठा लेती हो? अम्मा मुझे क्यों नहीं बुलाया?

माता का हृदय वात्सल्य से गदगद हो उठा। तू जा अपना काम देख मेरे पीछे क्यों पड़ता है? गोबर निकालने का काम मेरा है और दूध कौन दुहेगा?

वह भी मैं करूँगा।

तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा?

जितना कहता हूँ उतना कर लूँगा।

तो मैं क्या करूँगी?

तुम लड़कों से काम लो जो तुम्हारा धर्म है।

इसके बाद मोहन बाजार गया और दूध बेचकर जब वो वापस लौटा तो उसके हाथ में एक पान सुपारी और एक छोटा सा पानदान था, और थोड़ी सी मिठाई लाया था।

बूटी बिगड़ कर बोली, आज पैसे कहीं फालतू मिल गए थे क्या? इस तरह उड़ाएगा तो दिन कैसे निभेगा?

मैंने तो एक भी पैसा नहीं उड़ाया। अम्मा पहले तो मैं समझता था कि तुम पान खाती नहीं, तो अब मैं पान खाऊंगी हाँ और क्या?

जिसके दो दो जवान बेटे हो क्या वो इतना शौक भी पूरा ना करे? बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आयी।

उसने मैना और सोहन को एक एक मिठाई दी, एक मोहन को भी दे दी। मोहन वापिस अपने काम पर लौट गया और बूटी जब अंदर आई तो एक आईना पड़ा हुआ था। उसमें वो अपना मुँह देखने लगी। होठों पर लाली थी, मुँह लाल करने के लिए ही थोड़ी ना पान खाया था।

तभी उसकी पड़ोसी धनिया वहाँ पर आ गई। धनिया ने आकर कहा काकी तनिक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है। कल उसे बूटी ने साफ कह दिया था कि मेरी रस्सी गांव भर के लिए नहीं है।

रस्सी टूट गई है तो अपनी बनवा लो। लेकिन धनिया आज फिर से उसके पास रस्सी मांगने के लिए आ गई। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर बड़े ही खुश मन से दे दी और उससे पूछा, लड़के के दस्त बंद हुए की नहीं?

धनिया ने उदास मन से कहा नहीं काकी, आज तो दिन भर दस्त था। ये तुम तो जानती ही हो, उसके दांत आ रही है।

पानी भर लें तो ज़रा चलकर देखूं, दांत ही है या कुछ और? फसाद तो नहीं है? किसी की नजर वजर तो नहीं लगी?

अब क्या जाने काकि कौन जाने किसकी आंख फूटी होगी? कभी कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है।

ये क्या कहती हो काकी भला कोई अपने बच्चे को भी नजर लगाएगा?

यही तो तू समझती नहीं। नज़र अपने आप भी लग जाती है। धनिया पानी लेकर आई तो बूटीउसके बच्चे को देखने लगी।

तू तो आजकल अकेली ही है, घर के काम में बड़ी दिक्कत होती होगी।

नहीं काकी रूपा आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं तो अकेले मेरे मरने जैसी हालत हो जाए।

बूटी को यह जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ कि रूपा उसके घर पर काम करवाने के लिए आती है।

वो तो आज तक रूपा को सिर्फ एक चमक धमक वाली लड़की ही समझती थी। बूटी ने तो आजतक यही सोचा था कि रूपा एक तितली ही है।

वो हैरान होकर बोली रूपा?

हाँ काकी बेचारी बड़ी सीधी है, झाड़ू लगा देती है, चौका बर्तन कर देती है, लड़के को भी संभालती है। आज के समय में कौन किसको पूछता है काकी?

उसे तो अपने मिस्सी काजल से ही छुट्टी ना मिलती होगी? यह तो अपनी अपनी रुचि है काकी। मुझे तो इस मिस्सी काजल वाली ने जितना सहारा दिया है ना उतना तो किसी भगतिन ने ना दिया होगा। बेचारी रात भर जागती रही। मैंने तो उसे कुछ दिया भी नहीं।

हाँ, बस जब तक जिऊंगी उसका जस गाऊंगी।

तू उसके गुण अभी नहीं जानती धनिया। पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं? किनारेदार साड़ियां कहाँ से रंगाई जाती है?

मैं इन बातों में नहीं पड़ती काकी फिर शोख शृंगार करने का किसका जी नहीं चाहता? खाने और पहनने की यही तो उम्र है। धनिया ने बच्चे को खटोले पर ही सुला दिया।

बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रखा और पेट में धीरे धीरे ऊँगली गड़ाकर देखने लगी, बूटी भी धनिया के घर के काम में उसका हाथ बंटाने लगीं।

तब धनिया ने कहा की तुम तो इतनी भली मानस हो। यहाँ के लोग तो कहते थे की तुम बिना गाली के बात नहीं करती। मारे डर के मैं कभी तुम्हारे पास ना आयी।

बूटी मुस्कुराईं और बोलीं लोग झूठ तो नहीं कहते?

मैं आँखों देखी मानु के कानों सुनी?

उन दोनों में फिर से रूपा को लेकर बात चलने लगी। तभी वहाँ पर रूपा आयी।

उसने भी धनिया के घर आकर धनिया के घर के कामों में उसका हाथ बँटाया कुछ देर काम करने के बाद रूपा वहाँ से चली गई। जब रूपा वहाँ से चली गई तो बूटी सोचने लगी कि अगर कोई और लड़की होती तो मुझे देखकर अपनी नाक सिकोड़ लेती और तुरंत यहाँ से चली जाती, परन्तु रूपा ने ऐसा नहीं किया।

आज रूपा बूटी को बड़ी ही सुंदर लगी, वो सोचने लगी ठीक तो है, अभी शौख सिंगार ना करेगी तो कब करेगी? यही तो उम्र है शौख सिंगार करने की, और जहाँ तक पान खाने की बात है तो उसका शौक तो बूटी को खुद भी रहा है।

आज बूटी का मन बहुत ही प्रसन्न हो उठा था। उसके मन में रूपा को लेकर जो ईर्ष्या का भाव था वो दूर हो चुका था।

उस दिन के बाद रूपा दिन में दो बार बूटी के घर आती। बूटी ने मोहन से आग्रह करके उसके लिए एक अच्छी सी साड़ी मंगवा दी। अगर रूपा कभी बिना काजल लगाएं या बेरंग साड़ी पहने आ जाती तो बूटी कहती बहू बेटियों को ये जोगिओं वाला भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेस तो हम जैसी बूढ़ियों के लिए है।

रूपा ने 1 दिन कहा तुम बूढी कहा से हो गई हो अम्मा? लोगों को इशारा मिल जाए तो भौरों की फौज लग जाएगी।

यहाँ पर बूटी ने मीठे तिरस्कार से कहा, चल मैं तेरी माँ की सौतन जाऊंगी।

इसी तरह हँसी ठिठोली के बीच बूटी ने रस भरी आँखों से देखते हुए पूछा, अच्छा बता मोहन से तेरा ब्याह करवा दूँ?

रूपा को लज्जा आ गई, मुँह पर गुलाब की आभा दौड़ गई।

आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा कुछ पैसे जुटा, मैं रूपा से तेरी बातचीत कर रही हूँ और कुछ ही दिनों में 1 दिन वो भी आ गया जब रूपा और मोहन की शादी हो गयी। और वो पूरा परिवार एक खुशहाल परिवार बनकर रहने लगा।

मुंशी प्रेमचंद की कहानी “ज्योति” ~ सारांश

इस कहानी में हमने देखा कि बूटी का व्यवहार उसके विवाह से कड़वा हो गया था। साथ ही उसे थोड़ा सा आधार या प्यार मिलने से उसका हृदय परिवर्तन हुआ।

जब उसके बेटे ने उसे पान खाने को दिया तब उसका हृदय परिवर्तन हो गया। उसके पहले तक उसे लगता था कि विधवा होने की वजह से वो कोई साज श्रृंगार नहीं कर सकती थी। और एक छोटी सी चीज़ “पान” जिसका उसे सौंख था वो नहीं खा सकती है।

लेकिन जब उसके बेटे ने उसको प्यार से पान लाके दिया तब वो खिल उठी। उसके हृदय में एक परिवर्तन आया और उसका व्यवहार भी दूसरों के लिए बदल गया। आशा है आपको ये कहानी पसंद आएगी। कृपा टिपण्णी करें।






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