दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ. अकबर इलाहाबादी की इस शायरी में वह अपनी आत्म-चेतना, जीवन के दृष्टिकोण और विचारों को गहरे रूप में व्यक्त करते हैं। पहले शेर में अकबर खुद को दुनिया से अलग बताते हैं। वह दुनिया के तलबगार नहीं हैं, जिसका मतलब है कि वह इस दुनिया में किसी की ख्वाहिश या आकर्षण के लिए नहीं हैं। वह बस एक पथिक की तरह बाज़ार से गुज़र रहे हैं, लेकिन कोई चीज़ खरीदने का इरादा नहीं रखते।
दूसरे शेर में वह अपने जीवन की ज़िंदगी की लज़्ज़त से अनजान होने का एहसास कराते हैं। वह ज़िन्दा तो हैं, लेकिन जीवन की वास्तविक खुशी और संतोष से दूर हैं। वह कहते हैं कि होश में रहते हुए भी वह “होशियार” नहीं हैं, इसका मतलब है कि वह दुनिया के भ्रमों से दूर, एक निराकार अवस्था में हैं। तीसरे शेर में वह अपने अस्तित्व को बेदीवार (दीवार से अलग) साया मानते हैं। उनका कहना है कि इस दुनिया से वह ऐसे गुजर जाएंगे, जैसे कोई साया बिना कोई ठोस अस्तित्व के। यह उनका जीवन के अस्थिर और अस्थायी होने की भावना को दर्शाता है।
चौथे शेर में वह अफ़सुर्दगी (निराशा) और रोग की स्थिति को जोड़ते हैं। उनका कहना है कि ग़म और दुःख के बावजूद वह किसी दवा के मोहताज नहीं हैं, क्योंकि उनके ग़म की गहराई और प्रकृति ऐसी है कि कोई बाहरी दवा उसे ठीक नहीं कर सकती। पाँचवे शेर में वह खुद को उस गुलाब के समान मानते हैं जिसे मौसम (खिज़ां) ने मुरझा दिया है, और वह किसी का सहारा लेने की बजाय अपने जीवन के दुःखों से अकेले निपटना चाहते हैं।
छठे शेर में वह एक बुत (मूर्ति) के सितम से बचने की दुआ करते हैं, लेकिन वह खुद उस बुत के रहम की उम्मीद नहीं करते। वह अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को स्वीकार करते हैं, लेकिन वह इनायत (सहनशीलता) की तलाश में नहीं हैं। अंतिम शेर में अकबर अपने ग़म और अफ़सुर्दगी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि वह किसी धार्मिक या गैर-धार्मिक व्यक्ति के मुकाबले में भी अपने विचारों को साफ-साफ व्यक्त करते हैं। वह कहते हैं कि वह काफ़िर (नास्तिक) के सामने भी एक सच्चे दींदार (धार्मिक व्यक्ति) की तरह खड़े हैं, जिसका मतलब है कि वह अपनी असली पहचान में रहते हुए, अपने सिद्धांतों पर अडिग हैं।
यह शायरी अकबर इलाहाबादी की आत्मनिर्भरता, जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण और उनके अद्वितीय विचारों को व्यक्त करती है, जो समाज और धर्म के परंपराओं से परे हैं।
अकबर इलाहाबादी और उनकी शेरो शायरी
Table of Contents
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ – अकबर इलाहाबादी
शब्दार्थ:
- तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला ↩︎
- ज़ीस्त= जीवन ↩︎
- लज़्ज़त= स्वाद ↩︎
- ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर ↩︎
- बेलौस= लांछन के बिना ↩︎
- फ़क़्त= केवल ↩︎
- नक़्श= चिन्ह, चित्र ↩︎
- अफ़सुर्दा= निराश ↩︎
- इबारत= शब्द, लेख ↩︎
- हाजित(हाजत)= आवश्यकता ↩︎
- जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता ↩︎
- गुल= फूल ↩︎
- ख़िज़ां= पतझड़ ↩︎
- ख़ार= कांटा ↩︎
- महफ़ूज़= सुरक्षित ↩︎
- इनायत= कृपा ↩︎
- तलबगार= इच्छुक ↩︎
- अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता ↩︎
- क़ाफ़िर= नास्तिक ↩︎
- दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला। ↩︎
अकबर इलाहाबादी की इस शायरी में वह अपने अस्तित्व और जीवन के प्रति अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। वह दुनिया से बेपरवाह हैं और कहते हैं कि वह किसी की ख्वाहिश या आकर्षण के लिए नहीं जीते। जीवन की खुशी और संतोष से अनजान, वह खुद को अस्थायी और बेध्वार मानते हैं। वह ग़म और निराशा के बावजूद किसी बाहरी मदद के बजाय अपनी स्थिति को स्वीकार करते हैं। अकबर अपने ग़म को अपनी पहचान मानते हुए, धर्म और समाज की परंपराओं से परे रहते हुए, अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हैं। शायरी में उनकी आत्मनिर्भरता, निराशावाद और जीवन के प्रति गहरे विचारों का व्यक्तित्व झलकता है।
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