“दूध-दूध कविता” – गरीबी का चित्रण | रामधारी सिंह दिनकर

दूध-दूध कविता भूख, निराशा, और गरीबी से पीड़ित बच्चों की मासूमियत का हृदयविदारक चित्रण है। यह उन शिशुओं की पीड़ा को उजागर करती है जो दूध के लिए रोते हैं, जो उनके पोषण की बुनियादी आवश्यकता का प्रतीक है, और इस दुनिया की ओर इशारा करती है जो उनकी वेदना पर चुप्पी साधे हुए है। कवि समाज, मंदिरों और धनाढ्य वर्ग की उदासीनता को उजागर करते हैं, जो अपने पालतू जानवरों को तो दुलारते हैं, पर भूख से बिलखते बच्चों की पुकार को अनसुना कर देते हैं।

कविता में असहाय माताओं, खाली कब्रों और मौन देवताओं की छवियां दुनिया की क्रूरता और असमानता को रेखांकित करती हैं।

कविता का अंत एक आह्वान के साथ होता है, जो प्रकृति और मानवता को प्रेरित करता है कि वे इन मासूम बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आगे आएं। यह पीड़ा एक अन्याय है जिसे दूर करना ही होगा। यह कविता करुणा और सामाजिक जिम्मेदारी के लिए एक गहरी पुकार है।

रामधारी सिंह दिनकर

अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ें।

दूध-दूध कविता

दूध-दूध कविता – रामधारी सिंह दिनकर

पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना।

विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।

कब्र-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
‘दूध-दूध!’ की कदम कदम पर सारी रात सदा होती है।

‘दूध-दूध!’ ओ वत्स! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं,
‘दूध-दूध!’ तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं?

‘दूध-दूध!’ दुनिया सोती है, लाऊं दूध कहाँ, किस घर से?
‘दूध-दूध!’ हे देव गगन के! कुछ बूँदें टपका अम्बर से!

‘दूध-दूध!’ गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे,
‘दूध-दूध!’ उफ़! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे?

‘दूध-दूध!’ फिर ‘दूध!’ अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे?
‘दूध-दूध!’ मरकर भी क्या टीम बिना दूध के सो न सकोगे?

वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
वे बच्चे भी यही, कब्र में ‘दूध-दूध!’ जो चिल्लाते हैं।

बेक़सूर, नन्हे देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय!
हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय?

‘दूध-दूध!’ फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा!

जय मानव की धरा साक्षिणी! जाय विशाल अम्बर की जय हो!
जय गिरिराज! विन्ध्यगिरी, जय-जय! हिंदमहासागर की जय हो!

हटो व्योम के मेघ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
‘दूध, दूध! …’ ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं!

~ Ramdhari Singh Dinkar

दूध-दूध कविता का अर्थ

रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता भूख, गरीबी और समाज की असंवेदनशीलता का मर्मस्पर्शी चित्रण करती है। यह कविता एक बच्चे के संघर्ष और माँ की विवशता के माध्यम से सामाजिक असमानता और मनुष्यता के प्रति हमारे दायित्वों पर गहराई से विचार करने को मजबूर करती है।

पहला भाग: भूखे शिशु की व्यथा

कविता की शुरुआत में कवि एक नवजात शिशु की दुर्दशा का वर्णन करते हैं, जो अभी रोते-रोते माँ के सूखे स्तनों को चूसकर सो जाता है। शिशु इतना असहाय है कि वह अपने आँसू तक पीने की कला नहीं जानता। उसकी माँ विवश होकर देखती है, लेकिन उसके पास अपने बच्चे को देने के लिए कुछ नहीं है। कवि माँ की उस वेदना को दर्शाते हैं, जहाँ अगर संभव होता, तो वह अपनी छाती को चीरकर अपना रक्त भी शिशु को पिला देती।

दूसरा भाग: भूख का व्यापक रूप

कविता में कवि उन असंख्य बच्चों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं, जो कब्र में भूखे मर जाते हैं। उनकी हड्डियाँ तक भूख के कारण विलाप करती हैं। हर कदम पर ‘दूध-दूध’ की गूंज सुनाई देती है, लेकिन यह गुहार सुनने वाला कोई नहीं है। मंदिरों में भगवान की मूर्तियाँ हैं, लेकिन वे भी बहरी और पाषाण की तरह निस्पंद हैं। कवि तारे और देवताओं से पूछते हैं कि इन मासूम बच्चों के भगवान कहाँ हैं?

तीसरा भाग: माँ की पुकार और समाज की असंवेदनशीलता

माँ अपनी विवशता में आकाश के देवताओं से प्रार्थना करती है कि वे अम्बर से कुछ बूंदें टपका दें। गंगा नदी से विनती करती है कि वह अपने पानी को दूध बना दे। लेकिन, समाज के धनी लोग, जो अपने पालतू जानवरों को दूध से स्नान कराते हैं, वे भूखे बच्चों की चीखों को अनसुना कर देते हैं। यह दृश्य मानवीय असंवेदनशीलता और क्रूरता को उजागर करता है।

चौथा भाग: बच्चों की कब्र से उठती चीखें

कवि दर्शाते हैं कि कब्र में सोए हुए मासूम बच्चे भी ‘दूध-दूध’ की पुकार लगाते हैं। यह दुनिया इतनी कठोर है कि बच्चे मरने के बाद भी अपनी भूख को भुला नहीं पाते। कवि इन बच्चों के शाप को हिमालय पर पड़ते हुए देखते हैं, जो अब पूरी सृष्टि को हिलाने की तैयारी में है।

पाँचवां भाग: बदलाव की पुकार

कविता के अंत में कवि मानवीय संवेदनाओं को जगाने की अपील करते हैं। वे कहते हैं कि अब इन भूखे बच्चों के लिए दूध लाना अनिवार्य है। चाहे स्वर्ग को लूटना पड़े, चाहे बादलों को हटाना पड़े, लेकिन इन बच्चों की भूख को शांत करना ही होगा। कवि अंततः प्रकृति, समाज और मानवता की विजय की कामना करते हैं।

कविता का संदेश

“दूध-दूध” कविता केवल भूख और गरीबी का चित्रण नहीं है, बल्कि यह समाज के लिए एक सशक्त संदेश है। कवि हमें यह समझाने की कोशिश करते हैं कि गरीबी और भूख केवल एक आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि यह मानवता के मूलभूत मूल्यों का भी प्रश्न है। यह कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि मासूम बच्चों की भूख को भी अनदेखा कर दें? कविता करुणा, दया और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी की याद दिलाती है।

निष्कर्ष – दूध-दूध कविता

दिनकर जी की यह कविता हमें जागृत करती है कि अगर समाज में किसी को ‘दूध’ जैसी बुनियादी चीज़ के लिए तरसना पड़े, तो यह हमारी असफलता है। यह कविता न केवल एक व्यथा है, बल्कि मानवता को आत्ममंथन का अवसर भी देती है।


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