रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 4 | द्रोण का भय और कुंती का दुःख

रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 4 | द्रोण का भय और कुंती का दुःख। यह [ रश्मिरथी की व्याख्या ] पर मेरे काम का चौथा भाग है। पढ़ने की सुविधा के लिए मैंने अध्यायों को भागों में विभाजित किया है। पिछले भाग: रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 3 में हमने कर्ण और दुर्योधन की मित्रता की कहानी देखी।

इस भाग में गुरु द्रोणाचार्य के मन में एक डर है, जो चाहते थे कि अर्जुन सबसे महान धनुर्धर बने, हालांकि कर्ण एक धनुर्धर के रूप में अर्जुन को चुनौती देने वाला था। उसने रंगभूमि में जो करतब दिखलाये, उसके कारण द्रोणाचार्य के मन में एक भय व्याप्त हो गया।

कर्ण की माँ कुंती, संकट और दुःख में एक और व्यक्ति थीं क्योंकि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि जिस बच्चे को उन्होंने जन्म के समय त्याग दिया था, वह उनके दूसरे बेटे के प्रतिद्वंद्वी की तरह उनके पास आएगा।

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आईये अब हम रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 4 पढ़ें:

रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 4

द्रोण का भय और कुंती का दुःख

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रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
 सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए-“पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?
 
“जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
 टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा! तेरी राह।

“मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्धट भट बाल,
अर्जुन! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल!
 
“सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
 इस प्रचण्डतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!”
 
रंगभूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर, सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ’ कर्ण।
 
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय-सिद्ध अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।
 
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,
 नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

रश्मिरथी अर्थ और व्याख्या – प्रथम सर्ग भाग 4

रामधारी सिंह दिनकर की कविता रश्मिरथी

रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए-“पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?


“जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
 टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा! तेरी राह।

जब सभा समाप्त हुयी, तो सभी नगरवासी अपने अपने घर की और चले। उस रंगभूमि में जो उन्होंने देखा, उसके ऊपर हर्ष से चर्चा करते हुए। कोई कर्ण के गुणों की प्रशंसा करता, कोई अर्जुन (पार्थ) के गुणों की। सभी नगरवासी आपस में दोनों के गुणों की चर्चा करते हुए, एक साथ चले जा रहे हैं। परन्तु गुरु द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को अपने साथ, भीड़ से अलग लिए चल रहे हैं।

द्रोणाचार्य अर्जुन से कहते हैं, हे पार्थ! ये कर्ण के रूप में तुम्हे चुनौती देने कौन सा नया राहु फिर से आ गया? मेरा ध्यान तो हमेशा इसी बात पे लगा रहा की इस जगत में तेरा कोई प्रतिद्वंदी न हो। कोई ऐसा न हो जो तुम्हारे धनुर्विद्या की तुलना कर सके। कोई तुम्हे धनुष वाण चलने में टक्कर न दे सके।

यही कारण है के एकलव्य का अंगूठा मांगने में मैंने एक बार आह भी नहीं की, और उसका अंगूठा कटवा लिया । [ रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 2 में मैंने एकलव्य की कहानी बताई है ]। बेटा! मैं सदा यही चाहता हूँ और प्रयास करता हूँ के तुम्हारे रास्ते में कोई काँटा न आये। तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा न आये। तुम्हारे जैसा कोई दूसरा धनुधर न हो।

अर्जुन द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था, द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे की कोई अर्जुन की बराबरी कर सके। परन्तु, कर्ण ने जब अर्जुन को चुनौती दी, तो एक भय द्रोणाचार्य के मन में घर कर गया।

“मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्धट भट बाल,
अर्जुन! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल!
 
“सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
 इस प्रचण्डतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!”

द्रोणाचार्य अर्जुन से आगे बोलते हैं के जो भी आज हुआ और जो भी हमने देखा उससे मेरा धीरज और विश्वास डोल गया है। मुझे कर्ण में एक उत्कृष्ट वीर के लक्षण नज़र आते हैं। उसके गुण सामान्य वीरों के नहीं हैं, अपितु, चरम वीरता के लक्षण हैं। अगर ये उद्दंड बालक ऐसे ही बिना रुके बढ़ता गया, तो हे अर्जुन! वो कभी भी तेरा काल साबित हो सकता है। वो कभी भी तुम्हे प्रतिद्वंदिता में पराजित कर सकता है।

मैं यही सोच रहा हूँ के इस कर्ण के साथ क्या उपाय करूँगा। ये जो कर्ण रुपी धूमकेतु है, जो अभी तुम्हारे शत्रुओं में सबसे प्रचंड है, मैं इसका तेज कैसे हरूंगा?

यहाँ द्रोणाचार्य (रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में) कर्ण को धूमकेतु कह के सम्बोधित करते हैं। जैसे धूमकेतु से आग निकलती है, और वो अत्यंत गतिमान होता है। द्रोणाचार्य कहते हैं के मैं कोई उपाय सोच रहा हूँ, इस कर्ण रुपी धूमकेतु की अग्नि को कैसे शांत किया जाए।

द्रोणाचार्य अर्जुन को सावधान रहने के लिए कहते हैं, ये एक बात तो निश्चित है के इस कर्ण को मैं अपना शिष्य नहीं बनाऊंगा, लेकिन बेटे! तुम भी इस कठिन शत्रु से सावधान रहना।

रंगभूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर, सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ’ कर्ण।
 
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय-सिद्ध अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।

दूसरी तरफ कौरवों का दल था जो कर्ण को ख़ुशी से नाचते गाते और मौज मानते लिए चल रहा था। कौरव कर्ण को शंख बजाते लिए चले जाते थे। कर्ण का चेहरा दीप्त था, ऐसा प्रतीत होता था जैसे कोई सोने का पहाड़ हो, सुगठित शरीर और अत्यंत दिव्यमान। एक दुसरे के गले में बाहें डाल कर कर्ण और दुर्योधन चल रहे थे।

रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, आज जो हुआ ये सब देख कर सूर्य भी तृप्त था, शाम का समय था, इसलिए सूर्य भी अस्त होने की दिशा में था, और शीतल था। कर्ण सूर्य का पुत्र था, इसलिए कवि कहते हैं, सूर्य भी अपने पुत्र कर्ण के अंगों को बड़े प्रेम और अपने कोमल हाथों से चूम रहे थे।

शाम की हलकी सी धुप की किरणों को शायद रामधारी सिंह दिनकर ने “सुकोमल कर” कहा है।

आज सूर्य को भी दिन के निर्धारित समय पर अस्त होने में अच्छा नहीं लग रहा था। ऐसा लगा जैसे अपने पुत्र प्रेम में एक क्षण को सूर्य भी क्षितिज पर रुक गया हो। सूर्य अपनी गति भूल गया हो।

और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,
 नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

इन पंक्तियों में दिनकर जी ने कुंती का दुःख व्यक्त किया है। कुंती ने समाज में बदनामी से बचने के लिए कर्ण का त्याग किया था क्यूंकि, कर्ण के जन्म के समय वो अविवाहित थी। परन्तु आज कर्ण सबके सामने आ गया। और सबके सामने आया भी तो अपने ही भाई का प्रतिद्वंदी बन के। सबके सामने आया भी तो अपने ही कुल के विरूद्ध।

रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं, जब रनिवास अर्थात रानियों का समूह जब राजभवन को वापस चला, भीड़ में सबसे पीछे एक विकल मन की स्त्री (कुंती) अपने मन को मसोसती, दुखी मन से चल रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे, उसके सपने टूट गए हों, जैसे कोई दाव हार गई हो। दुखी मन से चल रही कुंती को ऐसा लग रहा था जैसे उसके पाँव उठाने पे भी नहीं उठ रहे हों।

इन् शब्दों में कवि ने मानव भावनाओं का एक अद्भुत चित्रण किया है। उस स्त्री की मंशा दिखाई है, जिसने लोक लाज से अपने पुत्र का त्याग किया हो। वही पुत्र आज सबके सामने आ गया। वो माता अपने पुत्र को पुत्र भी नहीं कह सकती। अपने पुत्र को गले भी नहीं लगा सकती। ये एक माता का दुःख है। इसके साथ ही, जब उसका पुत्र वापस आया तो उसके दूसरे पुत्र से बैर की भावना लेकर। दुसरे पुत्र का प्रतिद्वंदी बन कर। ऐसे में एक माता के ह्रदय पे क्या बीत रही होगी, वो माता ही जानती है। कुंती का दुःख कुंती ही जानती है।

रश्मिरथी प्रथम सर्ग भाग 4 सारांश

इस पूरे भाग में रामधारी सिंह दिनकर ने द्रोणाचार्य की दुविधा और भय के साथ साथ, कुंती का दुःख प्रदर्शित किया है। एक तरफ द्रोणाचार्य हैं जो किसी को भी अर्जुन के बराबर नहीं आने देना चाहते। वो कोई उप्पय ढूंढ रहे हैं जिससे कर्ण का तेज काम हो। कर्ण अर्जुन से प्रतिद्वंदिता न कर सके।

दूसरी तरफ कुंती है, जो अपने त्यागे गए पुत्र के सामने आने पर अपने मातृ मोह में है। परन्तु अपने पुत्र को अपन पुत्र भी नहीं कह सकती।

दुर्योधन, कर्ण जैसा मित्र पाकर प्रसन्न है। सूर्य भी अपने पुत्र की प्रतिष्ठा देखकर प्रसन्न है।

परन्तु इन् पंक्तियों में एक माता का दुःख है। जो लोक लाज के कारण बेबस है, लाचार है।

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