कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है।
चढें नहीं चींटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।
“वृद्ध देह, तप से कृश काया, उसपर आयुध-संचालन,
हाय, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझपर दिखलाते रहते ममता कितनी।
“कहते हैं, ‘ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा।
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।
“‘ज़रा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।
“‘पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुजदण्ड
अभय, नस-नस में हो लहर आग-की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।
“‘ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की, गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।
“‘खड्ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं, राजे,
इसीलिए तो सदा बजाते रहते वे रण के बाजे।
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।
“‘सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की? करते सब अपने मन की,
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।
औ’ रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।
“‘रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।
“‘रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,
भूपों के विपरीत न कोई कहीं कभी कुछ भी बोले।
ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,
और ज़ोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।
“‘अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिये शंख-गंगाजल है।
कहाँ तेज ब्राह्मण में? अविवेकी राजा को रोक सके,
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।
“‘और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
यहाँ रोज़ राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
चलती नहीं यहाँ पण्डित की, चलती नहीं तपस्वी की,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी-यशस्वी की।
‘सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।
चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय |
‘जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
जान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,
‘कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं , कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,
‘तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, ठुखों से छूट नहीं वह पायेगी।
थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिल्राषा को,
भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड़ग की भाषा को।
‘रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नूप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज़ानियों! खड़॒ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।
‘नित्य कहा करते हैं गुरुवर, ‘खड़ग महाभयकारी है,
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।
‘वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड़ग उठाता है,
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
सीमित जो रख सके खड़ग को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।
‘जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखल्ााता हूँ.
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
‘जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्ञझर की धारा है।
‘मैं शंकित था, ब्राहममा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।
‘जियो, जियो ब्राहमणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
एक बार तुम भी धरती को नि:क्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तुम ब्राहमणकुमार हो, कवच और कुण्डत्र-धारी,
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?
‘किन्तु हाय! ‘ब्राहमणकुमार’ सुन प्रण कॉपने लगते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छल होगा?
‘पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?
‘हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डत्र-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?
‘नहीं पूछता है कोई तुम व्रती , वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
‘मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुट्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रहमलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?
‘कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।’